जिन्दगी मिली तो जरूरतें भी मिली ,
और जरूरतें मिली तो ख्वाहिशें भी ,
जरूरतों को पूरा करूं तो ख्वाहिशें दम तोड़ देती हैं ,
और ख्वाहिशों को पूरा करूँ तो जरूरतें दम तोड़ देती हैं ,
दोनों को पूरा करने के चक्कर में जिंदगी गुज़र जाती है ,
न ज़रुरत पूरी होती है न ख्वाहिश पूरी होती है ,
जिंदगी की भीड़ में युहीं गुम हो जाता हूँ ,
ख्वाहिशों और जरूरतों में फर्क भूल जाता हूँ ,
और हाँ अगर जेब में पैसा है तो दुश्मन भी अपना ,
बरना गली का कुत्ता भी देखकर भोंकना शुरू हो जाता है..........................
प्रदीप सिंह (एच . पी. यू . ) शिमला -समर हिल I
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