लेखक
: प्रदीप सिंह
पता : गांव—ओच, डाकघर—लाह्डू , तहसील—जयसिंहपुर , जिला—काँगड़ा , हिमाचल प्रदेश
दोस्तो हमारे इर्द-गिर्द हर रोज न जाने कितनी
ही घटनाएं घटती है जो कि न केवल हम पर अपितु हमारे जीवन पर भी गहरा प्रभाव डालती हैं
और कई बार तो हमारे जीवन की दिशा ही बदल देती हैं, न जाने कितने ही सबालों को यह
घटनाएं हर रोज जन्म देती हैं और यही सबाल
हमारे अंदर एक अजीब सी घुटन व बेचैनी पैदा करते हैं और जब तक हम इनकों दूसरों के साथ
नहीं बांटते तब तक यह हमें अंदर ही अंदर तंग करते रहते हैं!
आज मैंने भी इन काव्य रचनायों के जरिए अपने
अंदर पैदा होने बाली इस घुटन को आप सबके साथ बांटने का सोचा है, हालांकि यह मेरा
पहला संस्करण है और मैं कोई बहुत बड़ा या प्रतिष्ठित लेखक नहीं हूँ क्यूंकि लिखने
वाले तो सोच के समंदर में डूबकर मोती निकाल लेते हैं या यूं कहें कि पूरे जहां के
दर्द को एक कौरे कागज़ पर उतार देते हैं!
कहते है समाज को हर किसी ने अपने दर्द के
अनुसार देखा है और उसे बोलकर, लिखकर, गाकर या नाटक जैसे अभिव्यक्ति के माध्यमों से
प्रस्तुत किया है! “सच की तरफ मेरा पहला कदम” मेरी कोशिश है आप सब से जुड़ने की और
आपसे गुफ्तगुह करने की ! दोस्तो मैंने कभी
भी नहीं सोचा था की मैं कुछ लिखूंगा लेकिन मुझे पता ही नहीं चला की कब यह खंज़र
मेरा दोस्त बन गया और कब इसे चलाना मेरा शौक बन गया!
यह सच है कि कुछ लिखने के लिए समाज को समझना
जरूरी है और समाज को समझने के लिए उस हर छोटी-सी- छोटी इकाई या चीज़ को समझना पड़ता
है जो हमसब को जोड़कर समाज का निर्माण करती है, इसलिए मैंने भी इन काव्य रचनायों के
माध्यम से समाज के प्रति अपने दृष्टिकोण को आपके साथ सांझा करने की एक पहल की है!
लेखक : प्रदीप सिंह राणा (चुन्नू)
खवाब है शायद सच हो जाए...
सोचता हूँ की खुद से गुप्तगुह कर लूं,
आँखों को पत्थर और जुबान को खामोश कर लूं,
ज़माना पूछेगा जरूर मेरे आंसूओं की बजह बर्ना,
सांसों को धीमा और सपना को थोडा छोटा कर लूं,
काफी थक गया हूँ सफर में चलते चलते अब मैं,
सोचता हूँ कि यहाँ रुक कर खूब आराम कर लूं,
नींद तो नहीं है “प्रदीप” आंखों में मेरी अब,
मगर जागने की कोई बजह भी नहीं दिखती,
क्या खूब खेल खेला है जमाने ने भी मेरे साथ,
सहारा दिया मुझे वो भी मेरे मरने के बाद,
खैर कभी तो कोई पुतला जागेगा,
कभी तो खामोशियों का सब्र टूटेगा,
शायद उस दिन कोई तूफ़ान आये,
और पत्थर आंखों से भी बरसात हो जाये,
शायद मशीने फिर इंसान बन जाएँ,
और अपने बिखरे पुर्जों को फिर जोड़ पायें,
शायद मैं फिर से जिन्दा हो जाऊं,
खवाब
है शायद सच हो जाए................
तो शायद कुछ और होता
काश में तेरे चेहरे के पीछे छिपे दर्द को समझ पाता,
तो शायद कुछ और होता.....
तेरे पत्थर पर तराशे उन सपनों को देख पाता,
तो शायद कुछ और होता.......
समझ पाता तेरे खामोश
नज़रों की बेचैनी को,
तो शायद कुछ और होता......
तेरे सफेद चादर से लिपटे बदन के सच को समझ पाता,
तो शायद कुछ और होता.....
समझ पाता आसमान में उठते धुंए का मतलब,
तो शायद कुछ और होता.....
मिल जाता
तेरी यादों
का ही सहारा जीने के लिए
तो शायद कुछ और होता....
काश मिल जाता बचपन का साथी मुझे दोबारा
तो
शायद कुछ और होता !
बस इतना सा गुनाह कर आया हूँ मैं
वक्त के हाथों से लम्हों को
चुरा लाया हूँ,
मौत से लड़कर ज़िन्दगी को जीत लाया हूँ,
तूफानों को
अक्सर तबाही करते देखा होगा तुमने,
मगर आज मैं, तूफानों
को फनाह करके आया हूँ,
अब करना हिफाजत इस घर(संसार ) की तुम,
दरवाजों को युहीं खुला छोड़ कर आया हूँ मैं,
लड़ी है जंग इस बार भले ही अकेले मैंने,
पर लोगों को लड़ने का हुनर सीखा आया हूँ मैं,
यह शरीर रहे या न रहे
कल दिन को
पर लोगों में एक सोच पैदा कर आया हूँ मैं,
मुझे माफ़ करना ए - दुनियां बनाने बाले
बस इतना सा गुनाह कर आया हूँ मैं,
मुझे माफ़ करना ए - दुनियां बनाने बाले
बस
इक छोटा सा इंकलाब पैदा कर आया हूँ मैं,
राख हो गई बस्ती सारी,
यादें आसमान में गुम हो गई,
रहती थी जहाँ हर पल रौनक, वहां खामोशी सी छा गई,
पड़ी हैं अधजली लाशें हरतरफ राख में लिपटी हुई,
कमबख्त ये बारिश भी मौत के बाद ही आनी थी,
कैसे पहचानूं अपनों को यहां तो हर चेहरा बदला हुआ है,
अब्बा, अम्मा, भाई - बहन हर रिश्ता जला हुआ है,
क्या कहूं किसी से कि यहां हर शख्स बिका हुआ है,
इक था भरोसा खुदा का लगता है वो भी
इनसे मिला हुआ है,
सुना है अब यहाँ पर आलिशान महल
बनेंगे,
जिसकी हिफाजत फिर भी हम लोग ही करेंगे,
पर खुदा से आज मैं एक सबाल जरूर करूँगा,
क्या हर दौर में,
मैं गरीब ही रहूँगा ...............
उलझ गई अब जिन्दगी रिश्तों में,
मैं खाली सोच लेकर कहाँ जाऊं,
बनाऊं अगर पुतले मिटटी के हजारों,
मगर उनमें जान कहाँ से लाऊं,
यह शहर तो अब मुर्दों का ठहरा,
इनमें अब कोई जान नहीं,
लोहे सा हो गया है बदन सबका,
किलों का भी कोई एहसास नहीं,
यहाँ रिश्तों का कोई नाम नहीं है,
कौन किसका क्या है कोई पहचान नहीं है,
अब यहां किसी का दम नहीं घुटता,
अगर मर भी जाये कोई, तो काम नहीं रुकता,
यहां किसी को दर्द
नहीं होता,
खराब हो जाए
पुर्जा, तो शरीर बर्बाद नहीं होता,
लगता है अब हम
मशीनें बन चुके हैं,
खुद को मार कर
दीवारों में कैद हो चुके हैं,
हाँ अब हम मशीनें बन चुके हैं .................
देखा होगा तुमने गरीब पर उसकी गरीबी नहीं देखी
देखा होगा तुमने गरीब पर उसकी गरीबी नहीं देखी
बचपन गुजरता है जिसका काँटों
में वो जवानी नहीं देखी |
देखा होगा तुमने भंबरे को
मंडराते हुए,
मगर फूल से मिलने की उसकी तड़प नहीं देखी,
देखा है तुमने तो सिर्फ पतंगे को जलते हुए देखा है
लौ के लिए उसकी महोब्बत नहीं देखी |
देखा होगा तुमने खेतों में लहलहाती फसलों को
पर जो खून बनकर बहती है वो मेहनत नहीं देखी,
देखी है तो सिर्फ तुमने रोटी देखी है,
जो पैदा करता है इसको उसकी भूख नहीं देखी |
मगर फूल से मिलने की उसकी तड़प नहीं देखी,
देखा है तुमने तो सिर्फ पतंगे को जलते हुए देखा है
लौ के लिए उसकी महोब्बत नहीं देखी |
देखा होगा तुमने खेतों में लहलहाती फसलों को
पर जो खून बनकर बहती है वो मेहनत नहीं देखी,
देखी है तो सिर्फ तुमने रोटी देखी है,
जो पैदा करता है इसको उसकी भूख नहीं देखी |
देखा होगा तुमने गली मुहल्ले में तमाशा करते हुए बच्चों को
पर उनका बचपन, उनकी मासूमियत नहीं देखी,
देखा है तो बस तुमने पेड़ों पर लटकती लाशों को देखा है
उनकी घुटन, उनकी मजबूरी नहीं देखी |
देखा होगा तुमने कोठे पर नाचती हुई तवायफों को
पर उनकी बेबसी, उनकी लाचारी नहीं देखी,
देखा है तो सिर्फ तुमने लाश को कांधा देते हुए लोगों को देखा है,
पर उस नुक्कड़ पर पड़ी मेरी लाश नहीं देखी |
पर उनकी बेबसी, उनकी लाचारी नहीं देखी,
देखा है तो सिर्फ तुमने लाश को कांधा देते हुए लोगों को देखा है,
पर उस नुक्कड़ पर पड़ी मेरी लाश नहीं देखी |
देखा होगा तुमने गरीब पर उसकी गरीबी नहीं देखी
बचपन गुजरता है जिसका काँटों में वो जवानी नहीं देखी |
गुलाम आज भी हूँ, पर शरीर पर
बेड़ियाँ नहीं,
रिश्ते आज भी हैं, पर वो नजदीकियां नहीं,
रिश्ते आज भी हैं, पर वो नजदीकियां नहीं,
किताबें आज भी पढाई जाती हैं बच्चों को,
पर उसमें हमारी कहानियां नहीं,
लड़े थे वो भी देश के लिए, लड़े थे हम भी देश के लिए,
पर इतिहास में वो आज भी जिन्दा हैं, पर हमारी निशानियाँ नहीं,
आजाद तुम हो हम नहीं, लड़ाई अब
भी जारी है पर सिपाही तुम नहीं,
चूमा था फांसी के फंदे को यह समझ कर, कि देश अब आज़ाद हो जायेगा,
लेकिन कौन जानता था कि, यह सपना
कोई अपना ही तोड़ जायेगा,
आज एक बार फिर लाल किले पर
तिरंगा फेहराया जायेगा,
की थी गुलामी अंग्रेजों की,
इसलिए याद किया जायेगा,
यह कहकर की हम आजाद हैं, पूरा
वर्ष खून बहाया जायेगा,
कहीं पर दंगे, कहीं पर बिस्फोट करके, राजनीती
को चमकाया जायेगा,
फिर औरत विधवा होगी, फिर किसी
माँ का बेटा मर जायेगा,
और फिर भी बड़े गर्व से, "भारत माँ की जय" का नारा
लगाया जायेगा,
लेकिन मैं आज भी यही कहूँगा,
कि गुलाम आज भी हूँ पर शरीर पर बेड़ियाँ नहीं,
रिश्ते आज भी हैं , पर उनमें
वो नजदीकियां नहीं,
आज़ाद थी सोच, आज़ाद था मन और आज़ाद थे
हम,
न तपती धुप में पड़ते उन नंगे पाँव का,
और न ही किसी
छाँव का हमें था गम,
नादानियों और मासूमियत की उस उम्र में भी,
हर तरह से आज़ाद थे हम!
देखी नहीं थी कभी किसी के पाँव में बेडियाँ,
फिर भी आज़ादी की कीमत को समझते थे हम,
क्यूंकि शरारतों की उस उम्र में भी,
थोड़े से समझदार थे हम!
खुल जाये रास्ते में जूते तो कैसे पहनते है उसे,
इतने समझदार भी नहीं थे हम,
पर बड़े होकर देश की रक्षा करेंगे,
ये तय कर चुके थे हम!
बचपन से जिस आज़ादी की कीमत को पहचानते थे हम,
आज उसी को बचाने के लिए मर मिटे हैं हम,
लिपटा है शरीर तिरंगे में और मुस्कुरा रहे हैं हम,
क्यूंकि शरारतों की उस उम्र से ही,
थोड़े से समझदार थे हम!
बाखिफ़ था मेरे दर्द से यह शहर सारा,
हर रोज चर्चा करता, और मेरे जख्मों को गहरा करता!
हादसों ने एकदम हिला दिया था मुझे,
और मन की घुटन ने अनेक सवालों को जन्म दे दिया था!
मेरी हालत पिंजरे में बंद उस पंछी की तरह थी,
जो हर रोज बाहर निकलने के लिए झटपटाता,
और अपने लहूलुहान पंखों के साथ वेबस होकर,
हर शाम एक कोने में चुपचाप बैठ जाता!
पागल कहने लगे थे लोग मुझे,
जो कभी मेरे अपने होने का दाबा किया करते थे,
अगर वक्त पर आकर तुमने मेरा हाथ न थामा होता!
अब मुझे दुनिया की परवाह नहीं,
और बाकि क्या था सब भूल जाना चाहता हूँ,
जिंदगी का सफर है जो वाकि,
वो तुम्हारे साथ बिताना चाहता हूँ!
वाकि क्या था मैं सब भूल जाना चाहता हूँ ...........................
सदियों बाद बारिश हुई मेरे घर
पर
बादल तो कब से घुट रहे थे,
बादल तो कब से घुट रहे थे,
भीगा था आंसुओं से बदन मेरा
वो इसे केवल, बारिश का पानी समझ रहे थे,
वयां कर दिया हाल-ए-दिल उनसे हमने
वो इसे एक, अच्छी कहानी समझ रहे थे,
लहूलुहान था ज़ख्मों से दिल
मेरा,
वो इसे सिर्फ, एक लाल रंग समझ
रहे थे,
सोया उस रात तो कभी उठा नहीं
वो इसे बस, शराब का नशा समझ रहे थे,
चिपके थे मेरी छाती से मेरे
ज़ज्बात,
वो इसे सिर्फ, एक कौरा कागज़
समझ रहे थे,
लिपटा था सफ़ेद कफ़न में शरीर
मेरा,
वो इसे सिर्फ, एक खेल समझ रहे
थे,
होता देख जनाजे को मेरे रुखसत
गली में,
वो सिर्फ हाथों से तालियाँ बजा
रहे थे,
जब उठा धुआं आसमान में मेरी चिता से,
तो वो मुस्कुराकर वोल उठे,
लगता है, फिर से बादल बरसात के आ गए !
लगता है, फिर से बादल बरसात के आ गए !
जिंदगी को अब जीना सिख लिया है मैंने,
भरी है ऊँची उडान इरादों क़ि, सारा बादल पी लिया है मैंने,
अब गिराऊँगा आंसू सिर्फ, बंज़र जमीन पर ही जाकर,
भरी है ऊँची उडान इरादों क़ि, सारा बादल पी लिया है मैंने,
अब गिराऊँगा आंसू सिर्फ, बंज़र जमीन पर ही जाकर,
उमीदों का पौधा तैयार कर दिया है मैंने I
हवाओं का अब मुझपर कोई असर नहीं,
ऊंचाई से भी मुझको अब कोई डर नहीं,
अब तो उड़ान भी अपनी और सफ़र भी अपना,
क्यूंकि तूफ़ान को तो कब का झेल लिया है मैंने I
लहरों में अब वो दम नहीं, मेरी कश्ती भी कोई कम नहीं,
अब तो समन्दर भी अपना और कश्ती भी अपनी,
क्यूंकि गहराई को तो कब का पी लिया है मैंने,
जिंदगी को अब जीना सिख लिया है मैंने I
आज मुझपर किसी का जोर नहीं, एहसानों की कोई डोर नहीं,
अब तो दुआ भी अपनी और सलाम भी अपना,
क्यूंकि जंजीरों को तो कब का तोड़ दिया है मैंने,
जिंदगी को अब जीना सिख लिया है मैंने I
अब मुझपर किसी का क़र्ज़ नहीं, कुछ खोने भी डर नहीं,
अब तो खज़ाना अपना और तिजौरी भी अपनी,
क्यूंकि चावी को तो कब का निगल लिया है मैंने,
जिंदगी को अब जीना सिख लिया है मैंने I
मेरा अब कोई दुश्मन नहीं, मन में किसी का डर नहीं,
अब तो खंज़र भी अपना और कतल भी अपना,
क्यूंकि कातिल को तो कब का मार दिया है मैंने,
जिंदगी को अब जीना सिख लिया है मैंने I
जिंदगी से मुझे गम नहीं, मरने का भी डर नहीं,
अब तो मौत भी अपनी और ज़िंदगी भी अपनी,
क्यूंकि ज़िन्दगी को अब जीना सीख लिया है मैंने I
अपने हौंसलों का कद इतना लम्बा
रख कि,
आसमान भी तेरे आगे झुक जाये,
अपनी सोच को इतना बड़ा रख,
अपनी सोच को इतना बड़ा रख,
कि सारी धरती भी कम पड़ जाये,
पर ग़लतफ़हमियाँ मत पाल, जज्बा पैदा कर........
अपने दिल को इतना गहरा रख,
कि सारे नदी, नाले, दरिया और समन्दर इसमें समां
जाएँ,
मिट जाए नफ़रत संसार से,
मिट जाए नफ़रत संसार से,
लोगों में ऐसा प्यार, ऐसा लगाव पैदा कर के चल,
पर ग़लतफ़हमियाँ मत पाल, जज्बा पैदा कर........
रौशन रहे हर घर, हर गावं, हर शहर,
बस तू ऐसी रौशनी पैदा कर के चल,
मिट जाये भूख, उगले धरती भी सोना,
मिट जाये भूख, उगले धरती भी सोना,
ऐसी मशीन ऐसा बीज पैदा कर के
चल,
पर ग़लतफ़हमियाँ मत पाल, जज्बा पैदा कर..
तेरे होने का एहसास तेरे बाद
भी हो,
कुछ ऐसा काम पैदा कर,
हर चोट बन जाये जख्म सबका,
हर चोट बन जाये जख्म सबका,
ऐसा दर्द पैदा करके चल,
पर ग़लतफ़हमियाँ मत पाल, जज्बा पैदा कर........
दुश्मन भी रोये तेरे जनाजे को
रुखसत होता देख,
ऐसा लगाब पैदा करके चल,
हर होंठ तेरी चर्चा मैं हिले, बस ऐसा विचार पैदा कर के चल,
पर ग़लतफ़हमियाँ मत पाल, जज्बा पैदा कर.......
हर होंठ तेरी चर्चा मैं हिले, बस ऐसा विचार पैदा कर के चल,
पर ग़लतफ़हमियाँ मत पाल, जज्बा पैदा कर.......
डूब गया था सूरज पर रौशनी अब भी बाकि रही,
बुझ चुकी थी चिता पर आग अब भी बाकि रही,
खाक हो चूका था शरीर पर जान अब भी बाकि रही,
हो गई थी सुबह पर नींद अब भी बाकि रही |
गिरा दिया मकान मेरा उस दिन मेरे चाहने बालों ने,
टूट गई थी दीवारें पर छत अब भी बाकि रही,
बाढ़ ले गई बहाकर सब कुछ मेरा,
बाढ़ ले गई बहाकर सब कुछ मेरा,
बस मैं जिंदा रहा और लाश मेरी तैरती रही |
टूट चुके थे सब रिश्ते,
कट चुकी थी पतंग पर,
वो डोर, वो उड़ान अब भी बाकि रही,
चले गए हैं वो छोड़ कर हमें, काफी वक्त गुज़र गया,
चले गए हैं वो छोड़ कर हमें, काफी वक्त गुज़र गया,
पर याद अब भी सीने में बाकि रही |
भर गए थे सब घाव, सूख गए थे जख्म,
पर वो दर्द, वो तड़प,अब भी सीने में बाकि रही,
यूँ तो सूख गए थे नदी, नाले और सब पानी के समंदर,
पर
वो प्यास,वो लहर अब भी बाकि रही |
उजड़
गया था सारा गुलिस्तान, मुरझा गए थे सारे फूल,
पर वो खुशवू, वो कलि अब भी बाकि रही,
मीलों रास्ता तय कर दिया नंगे पाँव चल कर हमने,
मीलों रास्ता तय कर दिया नंगे पाँव चल कर हमने,
पर वो दुरी,वो मंजिल अब भी बाकि रही |
यूँ तो मिटा दिया था उसकी हर एक चीज़ को हमने,
पर वो याद,वो निशानी अब भी सीने में बाकि रही,
आएगे लौट के बैठे हैं आज भी इंतज़ार में,
आएगे लौट के बैठे हैं आज भी इंतज़ार में,
सदियाँ गुज़र गई पर आस अब भी बाकि रही |
आ
जाओ बस लौटकर यह आँखें अब कहती हैं,
जो रहती नहीं थी एक पल भी तुम्हें देखे
बगैर,
उन आँखों ने राह देखते सदियाँ गुजारी हैं,
उन आँखों ने राह देखते सदियाँ गुजारी हैं,
बस आजाओ लौटकर तुम एक बार यही आँखें कहती हैंI
वक़्त गुजर जाने के बाद वक़्त का एहसास होता है,
अपनों के बिछुड़ जाने के बाद अपनों का एहसास होता है,
वक़त के हाथों से जिन्दगी
इस कदर फिसल जाती हैं,
चोट बाद मैं लगती है दर्द पहले शुरू हो जाता है,
बचपन तो खेलकूद में ही और जवानी प्यार में निकल जाती है,
एक बुढ़ापा रह जाता है सोचने के लिए और जीवन युहीं व्यर्थ
जाता है,
यूँ तो वक़्त के साथ -साथ सभी रिश्ते बदल जाते हैं,
लेकिन उनमें से कुछ नासूर बनकर दिल को जख्मी कर जाते हैं,
अगर चीखने - चिल्लाने से ही रुकता तो कब का रुक जाता,
मगर काफ़िर है यह अपने जुल्मों का पूरा हिसाब रखता है,
पहले तो हम
वक़्त को अपने पीछे भगाते हैं,
फिर वक़्त
हमें अपने पीछे भगाता है,
जिन्दगी युहीं गुजर जाती है
इसी कशमकश मैं,
और हमारी हर कोशिश युहीं बेकार जाती है .............................
दफ़न हैं हज़ारों खुशियाँ इस शहर में अब भी,
गली में कभी फुर्सत मिले तो जाकर देखो
आएगा तुम्हें भी याद बचपन अपना,
यादों से जरा पर्दा हटा कर तो
देखो,
खुशियाँ ढूँढने के लिए तुम क्यूँ यहाँ – वहां भटकते हो,
यह सब दिखावे के रिश्ते हैं, छोड़ देंगे मुसीबत में,
वक्त मिला है, तो उसे अपनों के साथ गुज़ार के तो देखो,
सकूं मिलेगा दर्द में भी तुम्हें, बस थोडा सा दर्द बाँट के तो देखो,
चीज़ों को समेटते – समेटते, युहीं जिंदगी गुजर जायेगी,
लेकिन कुछ चीज़ें, फिर भी हमसे छूट जायेंगी,
माना ख्वाहिशें ज़रूरी हैं जीने के लिए, "प्रदीप"
मगर कुछ ख्वाहिशें फिर भी अधूरी रह जाएँगी,
यह सच है कि, जिंदगी मिली है जीने के लिए,
मगर इस जिंदगी का क्या, एक दिन यह भी हमसे रूठ जायेगी........................
तकदीरें
बदलने के लिए लकीरों को जलाना जरूरी होता है
लहरों पर
दौड़ने के लिए हिम्मत का होना जरूरी होता है
आसमान में उड़ने के लिए हौंसलों का होना जरूरी
होता है!
जिन्दगी में कुछ भी यूं ही नहीं मिलता बिना दिए
हुए,
कुछ पाने के लिए कुछ खोना ज़रूरी होता है!
यूँ तो जिन्दगी की डोर रंग-बिरंगे
धागों से मिलकर बनती है
पर हर रंग को बहुत ही संभाल कर
मिलाना जरूरी होता है,
उलझे न कोई रूह धागों में, बस प्यार से इन्हें
बुनना जरूरी होता है!
सफ़र में डगमगा न जाये कदम कहीं हमारे,
हर कदम को सोच समझ कर रखना जरूरी होता है,
रास्ता चाहे कितना
भी लम्बा हो, कट जाता है,
बस सफ़र में अपनों
का साथ होना जरूरी होता है!
जिंदगी में हर जंग
जीती जाये यह जरूरी नहीं,
कभी –कभी जीतने के
लिए हारना जरूरी होता है,
कहने वाले लाख
कहेंगे तुम्हे हारा हुआ,
बस खुद को अपनी जीत
का एहसास जरूरी होता है!
सूरमा आयेंगे बहुत तुम्हें
मारने के लिए तलवारें लेकर,
मगर कतल करने के
लिए इन्हें चलाना जरूरी होता है,
असली सूरमा तो
तोपों के मुहं को बंद कर देते हैं अपनी छाती से,
तकदीरें बदलने के
लिए लकीरों को जलाना जरूरी होता है!
इंक़लाब
करने का हुनर सीख ले
हौंसलों के पंख लगाकर
उड़ने का हुनर सीख ले,
अपने दुश्मन को पहचान कर लड़ने का हुनर सीख ले !
पैमाना हसरतों का टूट न जाये युहीं,
हसरतों को जिन्दा रखने का हुनर सीख ले !
रहे सलामत हर झोंपड़ी हर घर,
बनकर हिमालय
तूफ़ान से लड़ने का हुनर सीख ले,
रहे
बुलंद आवाज़ दमन के खिलाफ हमेशा,
इंसानों से महोब्बत करने का हुनर सीख ले !
मिलेगा सुकून तुम्हें हर काम के बाद,
ग़मों को छुपाकर खुश रहने का हुनर सीख ले,
मोती युहीं नहीं मिलता जमीन पर पड़ा हुआ,
समंदर
में डुबकी लगाने का हुनर सीख
ले !
महज़ भीड़ इकट्ठा करने से जंग लड़ी
नहीं जाती,
लोगों को
लड़ने के तरीके सीखाने का हुनर
सीख ले,
आयेंगे मुकाम बहुत ज़िन्दगी में
ख़ुशी देखने के,
पहले खामोशियों की बज़ह ढूँढने
का हुनर तो सीख ले !
अँधेरा रहे न किसी की जिन्दगी में “प्रदीप”
रात को चीरकर
सुबह के सूरज से मिलने का हुनर सीख
ले,
सफ़र युहीं न गुज़र जाये जिन्दगी का
इसी कशमकश में,
मजबूरी के सब बाँध तोड़कर इंक़लाब करने का हुनर सीख ले !
खींच दी लकीरें रिश्तों में, लब्जों की दीवारें बना दी,
आये न याद एक दुसरे की, ये सोच कर हर चीज़ जला दी,
पर दिल को कैसे जलाएं...........
आये न याद एक दुसरे की, ये सोच कर हर चीज़ जला दी,
पर दिल को कैसे जलाएं...........
दिन तो निकल जाता है यहाँ बहां घूम कर " प्रदीप "
बस एक रात खुली आँखों से गुजारनी पड़ती है,
और अगर गलती से आँख लग भी जाए,
तो वो सामने आ सामने आ जाती है !
अब मैं हर शाम महखाने में चला जाता हूँ
उसे भुलाने के लिए कुछ जाम पी लेता हूँ,
मगर फिर भी उसे भुला नहीं पाता हूँ!
उसे भुलाने के लिए कुछ जाम पी लेता हूँ,
मगर फिर भी उसे भुला नहीं पाता हूँ!
अब समझ में आया की यह दिल ही अपना नहीं है,
रहता तो मुझमे है पर धड़कता
सिर्फ़ उसके के लिए ही है !
सोचता हूँ कि अब खुद को को ही मिटा दूँ
न यह दिल धडकेगा, न वो याद
आएगी !
जब चला खुले आसमान मैं खुद को मिटाने,
तो गली मैं उसका जनाज़ा नज़र आया,
मरने से पहले ही सो बार मर गया मैं,
मरने से पहले ही सो बार मर गया मैं,
उसे भुलाने में भी, उससे पीछे
रह गया मैं !
अब फिर खींच गई है लकीर मेरे
और उसके दरमियाँ,
मैं लकीर के इस तरफ, और वो उस तरफ खड़ी है !
मैं लकीर के इस तरफ, और वो उस तरफ खड़ी है !
मर तो अब भी रहा हूँ मैं, “प्रदीप” फर्क बस इतना है कि,
पहले उसे भुलाने के लिए, और अब उससे मिलने के लिए मर रहा हूँ मैं....
ए ज़िन्दगी अगर तू ख़ुशी न देती, तो शायद गम
क्या है, मुझे पता नहीं चलता
आज छालों का एहसास जरा कम लग रहा हैं
मगर जख्मों के आगे यह दर्द क्यूँ डर रहा है,
मेरे बाजूओं की ताकत बड़ सी गई है
मगर हथौड़े की चोट से यह पत्थर क्यूँ कांप रहा हैI
आज जिस्म भी मुझे लोहे सा लग रहा है
मगर मुझे देख यह सूरज क्यूँ पिघल रहा है,
न जाने क्यूँ आज पसीने से भी खुशबू सी आ रही है
मगर यह फूलों का रंग क्यूँ उड़ रहा हैI
लगता है आज मेरी आँखें तेज़ हो गई हैं
मगर यह अँधेरे का दम क्यूँ घुट रहा है,
न जाने क्यूँ आज मुझे सीना फौलाद सा लग रहा है
मगर यह चट्टानों का बदन क्यूँ टूट रहा है
आज थकान में भी सकूं सा लग रहा है,
मगर मेरे चलने से यह रास्ता क्यूँ डर रहा है,
न जाने मिट्टी का बोझ कम क्यूँ लग रहा है,
मगर यह गहराई का कद क्यूँ घट रहा हैI
मुझे आज की कोई फ़िक्र नहीं है
मगर यह कल मुझसे क्यूँ घबरा रहा है
न जाने आज क्यूँ जीने का मन कर रहा है,
मगर मेरा जज्बा देख यह मौत का क़त्ल क्यूँ हो रहा हैI
एक सहारा था जीने का वो भी मुझ से छीन लिया
गरीब – गरीब कह कर, सारा देश ही गरीब कर दिया,
एक सहारा था जीने का, वो भी मुझ से छीन लिया,
दिखाकर हसीन सपने दुनिया के, हर तरफ धुआं ही धुआं कर दिया,
स्वास्थ्य सुविधाओं के नाम पर, सारा खून ही मेरा चूस
लिया,
देकर नौकरी और पैसे का लालच, मेरा खेत ही मुझसे छीन लिया,
एक सहारा था भूख मिटाने का, वो भी मुझसे छीन लिया,
बनाकर डिब्बे हर गावं – 2 में, बस एक दिखावा सा कर दिया,
अनाज और राशन के नाम पर, सारा कंकड़ ही इसमें उड़ेल दिया,
खादी और खाखी का खौफ दिखाकर, सारा जिस्म ही मेरा तोड़ दिया,
लहू था जितना भी मेरे अंदर, वो सारा लहू ही मेरा बहा दिया,
लटका है जिस्म चौराहे पर मेरा, सारा बीज ही नकली दिया,
बचा था जो ख्वाब सीने में मेरे, उसमें भी खंज़र उतार दिया,
बस एक सहारा था जीने का, वो भी मुझसे छीन
लिया..........
अक्षर आस्मां से गिरती हुई बारिश की बूंदों को देखा होगा तुमने,
क्या कभी समंदर
की गहराई से उठते हुए तूफ़ान को देखा है,
गिरते हैं सूखी आँखों से भी आंसू कभी – कभी अगर गौर से देखो,
फर्क बस इतना है कि उनका बजन जरा कम होता है,
बहुत ही अच्छा लगता है जब कोई जोकर हमको हंसाता है,
हम क्या समझे पीड़ा उसकी हमें तो उसका रोना भी नाटक नज़र ही आता है,
एक अजीब सा दर्द होता है जब पतंग का डोर से साथ छूटता है,
यह वो क्या समझें जो मोम के पंख लगा कर उड़ते है,
इसका दर्द तो सिर्फ आसमान में उड़ता
पक्षी ही समझता है,
पहले हँसता था मगर अब खामोश हूँ मैं,
समझ गया हूँ कि आँख से निकला हर आंसू एक सा नहीं होता,
चाहे दिखने में रंग एक सा लगे तुमें, मगर यह सच है कि,
हर आंसू का दर्द एक सा नहीं होता I
अपने लहू के कतरों
को रंग बना कर मंच पर बिखैर देता है,
क्या खूब है यह
पुतला भी,
बस कुछ लम्हों
में ही दुनिया को आईना दिखा देता है !
कभी गिरता है, तो
कभी संभलता है,
दुनिया के दर्द
को खुद में समा लेता है,
कभी हँसता है, तो
कभी रोता है,
अनेकों रंग अपनी
अदाओं से मंच पर बिखैर देता है,
मगर जमाना इसे
सिर्फ एक नाटक समझता है,
उसे तडपता देख
तालियाँ बजाता है और हँसता है!
वो क्या जाने हाल
इस जख्मी परिंदे का,
जो सिर्फ अपने
जख्मों के लिए मरहम ढूँढता है,
रोक कर अपनी
साँसे ज़िन्दगी की,
हर चेहरे की
घुटन को हमें बताता है!
सचमुच यह रंगमंच
है “प्रदीप”,
जिसका पर्दा
जिन्दगी के साथ उठता है
और मौत के साथ ही
गिरता है...........
शायद सारे मुद्दे सुलझ चुके हैं
हमारे कदम कहाँ चले हैं, रोटी कपडा और मकान, शायद ये मुद्दे अब सुलझ चुके हैं,
अब घरों में रोटी नहीं बनती, शायद लोग बाहर खाना ज्यादा
पसंद करते हैं,
लगता है गाँव अब शहर बन गए हैं मगर लोग बंद कमरों में ही क्यूँ
घुटने लगे हैं,
शायद इंसान अब बूढा नहीं होता, मगर जवानी ढलने के बाद आखिर क्यूँ नहीं दिखता,
लगता हैं बच्चे अब समझदार हो गए, मगर गली - मोहल्ले आखिर
सुनसान क्यों हो गए हैं,
शायद अब लोग पैदल कम चलने लगे हैं मगर गाड़ी में ही क्यूँ
थकने लगे हैं,
लगता है अब बादल खूब बरसने लगे हैं मगर खेत आखिर क्यूँ
सूखने लगे हैं,
शायद अब किसान अमीर हो गए हैं मगर ये पेड़ों पर ही क्यूँ
लटकने लगे हैं,
लगता है, सारे बच्चे पढ़ लिख गए हैं मगर स्कूल और कॉलेज आखिर
क्यूँ बढ़ने लगे हैं,
शायद अब सारे लोग स्वस्थ हो गए हैं, मगर डॉक्टर और अस्पताल आखिर
क्यूँ बढ़ने लगे हैं
लगता है अब पैसे की कोई कमी नहीं है मगर चोरी और मार-काट आखिर
क्यूँ बढ़ गयी है,
शायद अब रिश्ते अब
मजबूत हो गए हैं मगर दिवाली, ईद और क्रिसमस अब फोन पर ही क्यूँ होने
लगे हैं,
लगता हैं मुर्दे भी
अब ज्यादा भीड़ और शोर पसंद नहीं करते मगर बिना अर्थी उठाए काँधे क्यूँ छीलने
लगे हैं,
शायद सारे मुद्दे सुलझ चुके हैं...........................
अश्तित्व मेरा खतरे में लगता है मुझको
कई मौसमों को बदलते और बरसते देखा है मैंने,
बारिश की बूंदों को पत्तों से गिरकर नदी, नाले और झरनों
में बदलते देखा है मैंने,
गिरती हैं न जाने कितनी ही लाशें पेड़ों से हर रोज,
बेजुवान चेहरों को धमाकों से डरते और संभलते देखा है मैने,
न जाने कितनें ही घौंसलों को बनते और बिखरते देखा है मैने,
एक –एक तिनके को चोंच में भरते और सपनों में बदलते देखा है मैने,
अपनों से बिछड़ने का दर्द क्या होता है यह कोई मुझसे पूछे,
कई परिंदों को पिंजरे में अपनों से बिछडकर तडपते और सिसकते देखा
है मैंने,
क्या बताऊँ न जाने कितने ही घरों को यहां उजड़ते देखा है
मैंने,
अनगिनत चेहरों को लाशें चवाते और दावत उड़ाते देखा है मैंने,
काफी दम घुटने लगा है मेरा अब तो इस हवा में भी,
जहर था जितना भी इसमें सारा जहर पी लिया है मैने,
अब ईलाज मुश्किल सा लगता है मुझको, “प्रदीप”
अश्तित्व मेरा खतरे में लगता है मुझको............
“अगर मिले वक्त तुम्हें तो इन खामोश नज़रों से सूखी मिट्टी हटा देना,
इक समन्दर नज़र आएगा आंसुओं से भरा
तुम्हें, बस देखकर डर मत जाना,
बंद कर लेना कानों को अपने, गर चीखों
को तुम सुन न सको तो,
और पर्दा डाल लेना आँखों पर अपनी, गर
जख्मों को तुम देख न सको तो,
अगर फिर भी तुम्हारा मन करे चीखने -
चिल्लाने का तो जोर से चिल्ला लेना “प्रदीप”
बर्ना दिख रहा है मुझे तुम्हारी
आंखों का पत्थर और जुवान का खोमोश हो जाना,
अगर मिले वक्त तुम्हें तो खामोश
नज़रों से सूखी मिट्टी हटा देना I
बस एक तुम सच्चे और किसान झूठा
जग
झूठा, रब
रूठा, सपने
टूटे,
साथ
छुटा,
चली
आंधी,
दर्द
उठा,
फसल
बर्बाद,
परिबार
भूखा,
आँखें
पत्थर,
विश्वास
टूटा,
मौसम बदला, किसान
रूठा,
झूठी
कसमें,
हौंसला टूटा,
लटका बदन,
दर्द घटा,
झूठी
आजादी,
प्यार
झूठा,
दफ़न
यादें,
जहान
छूटा,
शर्म
करो खुद को नेता कहने बालो,
तुम
सच्चे और किसान झूठा, जुवान
मिट्ठी और ज़हर तीखा,
बस एक
तुम सच्चे और किसान झूठा ............
बना लिया है मकां शीशे का पर
दिल भी साफ़ रखना,
दाग लग न जाये दोस्ती पर बस इतनी सी बात याद रखना !
दाग लग न जाये दोस्ती पर बस इतनी सी बात याद रखना !
लिखी गई है कई गज़लें, कई नज्मे दोस्ती पर,
बस उनमें से एक गजल,एक नज़्म याद रखना,
आएगा फिर से दौर गीतों का, बस
आवाज़ में दर्द बचा कर रखना !
बना लेना कितने ही रिश्ते शहर
में जाकर तुम,
पर गाँव क़ी हर झोम्पड़ी, हर खेत याद रखना,
पर गाँव क़ी हर झोम्पड़ी, हर खेत याद रखना,
खिलेंगे ज़रूर फिर से फूल आंगन
में, बस भंवरों से दोस्ती बनाकर रखना !
दर्द चाहे कितना भी हो जुदाई का, बस उसे सीने में दबा के रखना,
आएगा एक बार फिर से मौसम बरसात का,
बस आँखों में अपने आंसू बचा के रखना !
अनजान है दिल मेरा, शहरों से डरता है,
मगर कभी भूल से आ जाऊं, तो
मेरी पहचान याद रखना !
अगर भूलना ही होगा तो मुझे भूल जाना, बेशक,
पर साथ गुज़ारा हुआ वो हर पल याद रखना !
खुदा भी अजीब मजाक कर रहा है
खुदा भी
अजीब मजाक कर रहा है,
बनाकर
बर्फ की ऊँची दीवारें,
खुद ही उन्हें गिरा रहा है,
जख्मों
का कोई हिसाब नहीं,
खामोश
चेहरों में अब जान नहीं,
एक
अलग सा रंग हो गया है मिटटी का भी अब तो,
शमशान
सा हो गया है शहर मेरा भी अब तो,
भटक
रहे है लोग अपनों की तलाश में,
हर चेहरे से मिटटी को बार- बार बदल रहे हैं,
मेरा
दिल यह देख कर डर रहा है,
देखो
हिमालय फिर हिल रहा है,
सांसों
का तो अब कोई नाम नहीं,
दुआओं
का भी अब कोई काम नहीं,
दर्द
से लिपटे रिश्ते चीख रहे हैं,
क्या
गुनाह किया था यह पूछ रहे है,
यह सब
देख कर हर इंसान सोच रहा है,
देखो
खुदा भी अज़ीब मजाक कर रहा हैI
“सुसाइड पॉइंट”
काफी नज़रों को आस्मां से गुफ्तगुह करते देखा है मैने,
और काफी लाशों को युहीं हवा में तैरते
हुए देखा है,
मरने वाले तो पहले ही घर से मुर्दा बनके निकलते हैं,
यहाँ आकार तो सिर्फ मुझे बदनाम करते हैं,
काफी आशिकों को मरते देखा है अबतक मैंने,
प्यार करने का अजीव सा ढंग देखा है उनका मैंने,
अब तो आदत सी हो गई है ये सब देखते-२ मुझको,
काफी चीखों और सिसकिओं को करीब से सुना है मैंने,
क्या खूब हैं ये पुतले भी, जो जिंदगी को युहीं जलाते
हैं,
कभी किसी को चाह कर, तो कभी किसी की चाह में,
अपनी जिंदगी को बर्बाद करते हैं,
खुद तो दुनिया से रुखसत हो जाते हैं “प्रदीप”
और दाग मुझपर लगा जाते हैं,
और बेवजह एक खूबसूरत जगह को “सुसाइड पॉइंट” बना जाते है
अजीब हैं ये पुतले भी, जो जिंदगी को युहीं जलाते हैंI
साज़िशों का शिकार रहा हूँ मैं
आज न जाने सब रंग फ़ीके क्यूँ लग रहे हैं मुझे,
शांति, समृधि और वलिदान धुंधले से क्यूँ दिख
रहे हैं मुझे,
न जाने आज क्यूँ हवाओं से लड़ नहीं पा रहा हूँ
मैं,
आखिर अलग-अलग धाराओं से क्यों खींचा जा रहा हूँ
मैं,
आज क्यों जबरन हर किसी के हाथों में थमाया जा
रहा हूँ मैं,
आखिर बार – बार क्यूँ साजिशों का शिकार बनाया
जा रहा हूँ,
दर्द नहीं था जख्मों में जब दुश्मन की गोली से
घायल हुआ था मैं,
मगर न जाने आज फिर क्यों, उन जख्मों में दर्द
सा लग रहा हूँ मैं,
नारों का मुझे खौफ नहीं, बस दुःख है, कि
साजिशों का शिकार बनाया जा रहा हूँ मैं,
ऐसा नहीं है कि यह पहली बार देख रहा हूँ
मैं,
इन दुश्मनों की साजिश का तो, पहले भी शिकार रहा
हूँ मैं,
तूफ़ान बहुत देखे थे मैंने वर्फीले, जो मुझसे
टकराकर पानी हो जाते थे,
मगर न जाने क्यों, अब गर्म हवाओं में भी जम सा
रहा हूँ मैं,
शायद अब तुम्हें मेरी जरूरत नहीं, इसलिए दुश्मन
के आगे झुकाया जा रहा हूँ मैं,
डरता हूँ अब तो आस्मां से भी मिलने से, कहीं
हवाओं की साजिश का भी न शिकार हो जाऊं मैं…….
वक्त की दौड़
हर एक मुलाकात जानी
पहचानी सी लग रही थी,
तेरे चेहरे के पीछे छिपी
कहानी कुछ अपनी सी लग रही थी !
बादलों ने काफी ढूंडा
बरसने के लिए जमीन को ए आस्मां,
मगर आज सदियों बाद जाकर
सूखी धरती पर बरसात हुई !
कहते हैं लोग की बहुत शोर
है उनकी जिन्दगी में,
कभी फुर्सत मिले तो बताऊं
उनकों कि,
ऐसे कितने ही तूफानों को
अपने अंदर पनाह दी है मैंने !
अब तो वक्त ने भी कुछ इस
तरह तराश दिया हे मुझको,
कि हर चोट के दर्द में भी
सकूं मिलता है मुझको !
क्या कहूं तुमसे कि अब
चेहरों से भी डर लगता है मुझको,
धड़कन धीमी और घुटन सी हो
रही है, साँस लेने में भी अब मुझको!
शायद वक्त ने ही ‘पीछे
छोड़ दिया है मुझको,
यादों ने उसकी कमजोर सा
कर दिया है मुझको !
शायद युहीं वक़्त से दौड़ लगाने की जिद कर बैठा था मैं,
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें