निकलता है आज भी वो चाँद ,पर चांदनी उसकी अब नहीं दिखती
गिरती है अब भी बर्फ पहाड़ों में ,पर वो सफेद चादर अब नहीं दिखती ,
है मोहल्ले में बच्चे अब भी बहुत ,पर वो रौनक , वो ख़ुशी अब नहीं दिखती ,
दिखती है तो बस घरों में रिलायंस और एयरटेल की डीश दिखती है ,
वो बचपन ,वो खेलें अब नहीं दिखती ,
आ जाता है बुढ़ापा चेहरे पर जल्दी ही पर वो जोश ,वो जबानी अब नहीं दिखती ,
है प्यार करने बाले आशिक आज भी बहुत पर वो प्यार, वो आशिकी अब नहीं दिखती ,
बनती हैं आज भी फ़िल्में बहुत पर वो सभ्यता ,वो संस्कृति अब नहीं दिखती ,
दिखती है तो बस अशलीलता और असभ्यता दिखती है ,प्यार पर मर मिटने बाली ,
वो सोहनी , वो हीर अब नहीं दिखती ,
हैं अब भी बही जमीन , धरती ,आसमान और बही लोग पर,
वो ईमानदारी, वो इंसानियत अब नहीं दिखती ,
दिखती है तो सिर्फ करप्सन दिखती है , वो देशभक्त ,वो देशभक्ति अब नहीं दिखती ,
निकलता है आज भी सूरज पर वो धुप ,वो रोशिनी , अब नहीं निकलती ,
निकलती है तो सिर्फ अछे काम के लिए नहीं निकलती है , हाँ कभी नहीं निकलती ,
..........................................प्रदीप सिंह (एच .पी. यू . )
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